West Bengal Elections: आखिर गोरखा क्यों चाहते हैं अलग राज्य?
दार्जिलिंग के पहाड़ी इलाकों में गोरखालैंड की डिमांड सदी से भी ज्यादा पुरानी है। साल 1905 में ब्रिटिश सरकार ने प्रशासनिक सुविधा के नाम पर बंगाल का पहली बार बंटवारा किया था ।तब ही गोरखाओं के लिए अलग स्टेट की चर्चा भी होने लगी थी।

बीजेपी के इस बार के घोषणापत्र में गोरखालैंड का जिक्र नहीं है जिसके बाद दार्जिलिंग में इसे लेकर छुटपुट प्रदर्शन भी हो चुके है। यहां तक कि क्षेत्रीय संगठन मांग कर रहे हैं कि घोषणापत्र में संशोधन करते हुए गोरखालैंड का मुद्दा उठाया जाए, इसके बाद ही वे भाजपा को वापस सहयोग दे पाएंगे। क्योंकि हर बार बीजेपी कैसे ना कैसे अलग गोरखालैंड की बात करती है जिसकी वजह से उसको गोरखा समुदाय का वोट मिलता है।
बीजेपी ने क्या वादा किया था?
साल 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा ने कहा था कि अगर पार्टी सत्ता में आई तो वो आदिवासियों और गोरखाओं की लंबे समय से अटकी मांगों की जांच करेगी और उनपर विचार भी करेगी. पार्टी के प्रत्याशी को तब उन स्थानीय पार्टियों का खुलकर सपोर्ट मिला, जो गोरखाओं के लिए राज्य की मांग कर रही थीं। इसी वजह से भाजपा नेता जसवंत सिंह दार्जिलिंग सीट से भारी मतों से जीते और बीजेपी ने इस इलाके में अपनी पैठ बनाई।
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लेकिन इस बार ये मुद्दा गायब है
जानकार इस बारे में अलग-अलग राय रखते हैं। गोरखालैंड मसले के गायब होने के पीछे एक कारण ये भी हो सकता है कि पार्टी पूरे पश्चिम बंगाल में पैठ की सोच रही है। ऐसे में गोरखालैंड के लिए दार्जिलिंग को अलग करने या उसपर विचार भी करने जैसी बात लार्जर स्केल पर नुकसान कर सकती है. हालांकि मार्च में सिलीगुड़ी में हुई एक बैठक में पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा था कि उनकी पार्टी गोरखाओं की चिंताओं के हल के करीब पहुंच चुकी है।
अंग्रेजों से समय से चली आ रही मांग
दार्जिलिंग के पहाड़ी इलाकों में गोरखालैंड की डिमांड सदी से भी ज्यादा पुरानी है। साल 1905 में ब्रिटिश सरकार ने प्रशासनिक सुविधा के नाम पर बंगाल का पहली बार बंटवारा किया. तब ही गोरखाओं के लिए अलग स्टेट की चर्चा भी होने लगी थी, हालांकि ऐसा हुआ नहीं। दो साल बाद स्थानीय संगठनों ने अलग स्टेट की सीधी डिमांड की वे भाषा और तौर-तरीकों के आधार पर बंटवारा चाहते थे, लेकिन गोरखालैंड नाम तब भी नहीं लिया गया था।