भारत में गरीबी के आंकड़े भले ही घटे, लेकिन करोड़ों लोग अब भी संकट में
वर्ल्ड बैंक की नई रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 10 साल के अंदर करीब 27 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आ गए। लेकिन, सवाल है कि क्या सच में गरीबी कम हुई है।

वर्ल्ड बैंक की नई रिपोर्ट के मुताबिक 2011 में जहां 27% लोग रोज $3 से कम पर गुजारा कर रहे थे। साल 2022 में ये संख्या घटकर सिर्फ 5.3% रह गई। $2.15 की पुरानी सीमा से देखें तो सिर्फ 2.3% लोग अब बेहद गरीब माने जा रहे हैं। यानी 10 साल में करीब 27 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आ गए।
ये सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है, लेकिन सवाल ये है कि क्या ₹62 रोज कमाने वाला इंसान अब गरीब नहीं माना जाएगा?
इंटरनेशनल $3 poverty line को भारत में PPP (Purchasing Power Parity) से जोड़ा जाए तो ये करीब ₹62 रोज की कमाई होती है। अब सोचिए क्या ₹62 में कोई इंसान खाना, दवा, किराया, बिजली और बच्चों की पढ़ाई का खर्च चला सकता है?
Great Lakes Institute की प्रोफेसर विद्या महांबरे कहती हैं कि ये लिमिट बहुत कम है। आज के भारत के खर्चों के हिसाब से बिल्कुल भी सही नहीं है। सरकार की न्यूनतम मजदूरी खुद ₹178 तय करती है, फिर ₹62 को गरीबी की सीमा कैसे माना जा सकता है?
एक और प्रोफेसर डॉ. स्वप्निल साहू कहते हैं कि हमें अब "गरीबी रेखा" नहीं, बल्कि "इज्जत से जीने की रेखा" यानी दिग्निटी लाइन तय करनी चाहिए। उनका कहना है कि ₹250-₹300 रोज कमाने वाला ही थोड़ा सुरक्षित जीवन जी सकता है। ₹62 या ₹87 जैसी सीमाएं सिर्फ आंकड़ों को बेहतर दिखाने के लिए हैं, हकीकत छिपाने के लिए नहीं।
पिछले कुछ सालों में सरकार ने कई योजनाएं जैसे मुफ्त राशन, उज्ज्वला गैस, बिजली कनेक्शन, मनरेगा, आदि शुरू की गई। इससे करोड़ों लोगों को राहत मिली है। लेकिन गरीबी को मापने का तरीका बदला है जिससे लोग कम गरीब दिखते हैं।
नई तकनीक MMRP से खर्चों का डेटा जुटाया जाता है, जिससे गरीबी की दर कम हो जाती है। लेकिन असल में बहुत से लोग अब भी एक छोटी बीमारी या नौकरी जाने पर दो वक्त का खाना भी नहीं जुटा सकते।
आर्थिक असमानता सबसे बड़ी चुनौती
देश की दौलत कुछ लोगों के हाथ में ही सिमटी हुई है। आर्थिक विश्लेषक हार्दिक जोशी के मुताबिक देश के टॉप 1% लोगों के पास 40% दौलत है और नीचे के 50% लोगों के पास सिर्फ 6% है। इसका मतलब है कि आधे देश के लोग सिर्फ गुजारे भर के लिए लड़ रहे हैं।