दशहरा का पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, जिसे पूरे भारत में श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन भगवान राम ने रावण का वध कर माता सीता को मुक्त किया था। हालांकि, छत्तीसगढ़ के बस्तर में दशहरा अपने अनोखे रूप में मनाया जाता है, जहां रावण का दहन नहीं होता, बल्कि देवी की पूजा की जाती है।
बस्तर का दशहरा विश्वभर में अपनी विशेषताओं के लिए जाना जाता है। इसे 'बस्तर का दशहरा' कहा जाता है, जो विशेष रूप से आदिवासी संस्कृति से जुड़ा है। यहां पर श्रद्धालु दूर-दूर से इस महापर्व का हिस्सा बनने के लिए आते हैं।
त्योहार की शुरुआत हरियाली अमावस्या से होती है, जब जंगल से रथ बनाने के लिए पहली लकड़ी लाई जाती है। इस रस्म को 'पाट जात्रा' कहते हैं। यह त्योहार दशहरा के बाद तक चलता है और मुरिया दरबार की रस्म के साथ समाप्त होता है।
बस्तर में रावण दहन नहीं बल्कि देवी की पूजा होती है। यह महापर्व असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है, जिसमें बस्तर की आराध्य देवी की पूजा का विशेष महत्व है।
इतिहास की झलक में, बस्तर का दशहरा मां दुर्गा के महिषासुर वध से जुड़ा हुआ है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस दिन मां दुर्गा ने महिषासुर का संहार किया था। यह त्योहार 75 दिनों तक मनाया जाता है और इसमें विभिन्न देवी-देवताओं को आमंत्रित किया जाता है।
रथयात्रा का महत्व भी इस महापर्व का एक अभिन्न हिस्सा है। इसकी शुरुआत 1408 ई. में राजा पुरूषोत्तम देव द्वारा की गई थी। राजा ने धार्मिक भावना को सही दिशा प्रदान करने के लिए अपनी प्रजा के साथ जगन्नाथपुरी की यात्रा की।
जगन्नाथ स्वामी की कृपा से राजा को सोलह पहियों का रथ प्राप्त हुआ, जिस पर चढ़कर बस्तर नरेश और उनके वंशज दशहरा मनाते हैं। यह परंपरा 800 वर्षों से चली आ रही है।
रथ परिक्रमा की रस्म में मां दंतेश्वरी के मंदिर से मां के छत्र और डोली को रथ तक लाया जाता है। इस परिक्रमा की शुरुआत बस्तर पुलिस के जवानों द्वारा गार्ड ऑफ ऑनर देकर होती है।
बस्तर का दशहरा अपने आप में एक अनोखा अनुभव है, जो सांस्कृतिक धरोहर और धार्मिक भावना का संगम प्रस्तुत करता है। यह न केवल छत्तीसगढ़, बल्कि पूरे भारत की संस्कृति को समृद्ध करता है। इस पर्व की विशेषता यह है कि यह विभिन्न जातियों और समुदायों के बीच एकता और प्रेम का संदेश फैलाता है, जिससे यह महापर्व और भी खास बन जाता है।